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Showing posts from October, 2020

कर के देखिये, हो जाएगा!!

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कभी कभी हमारे अंदर बाहर इतना शोरगुल होता रहता है कि हम एकदम कन्फ्यूज़ हो जाते हैं,किसकी पहले सुनें! और नतीज़तन मेरी तरह ही कोई इतनी स्याह रात से कुछ स्याही उधार लेकर लिखने बैठ जाता है, या तो दिल की लिख ले या बाहरी दुनिया की। पर मैं दिल की लिखूंगी क्योंकि मेरे ख्याल से जो अंदर चलता है वो ज़्यादा जलता है। एक सवाल कौंध रहा है मन में कि हम इतनी सुंदर ज़िन्दगी से भागते क्यों रहते हैं, ज़रा सी आँच पर इतनी तपन क्यों महसूस होने लगती है.? कितना कुछ होता है हमारे पास फ़िर भी हम रीते रहते हैं.. प्यार करने जैसी ख़ूबसूरत क़ुदरती नेमत जिसे ज़िन्दगी कहते हैं उससे नफ़रत होने लगती है,क्यों? वजहें कई होंगी पर एक वजह जो मेरी नज़र में है वो ये कि हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं। स्वीकार नहीं कर पाते कभी जो कोई हमें दो कड़वी पर सच्ची बातें सुना दे.... जी में आता है कि कहने वाले को अच्छा सबक सिखा दें कि ज़ुबान पर ताले लग जाएं, है न!!! हमसे सहा नहीं जाता जब किसी विषय पर  "ना" सुनने को मिल जाए ... उसने मुझे रिजेक्ट कर दिया, उसकी इतनी हिम्मत?? क्या समझती/समझता है ख़ुद को?  हम स्वीकार करना ही नहीं चाहते जब सचमुच हमने ग़...

गाली

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तेरी माँ की ** ! चौंक गए न!  भई गाली दे रही थी, लगी न गोली जैसी ! हम दुनिया वाले भले खुद को सर्वशक्तिमान की उपाधि दे लें, पर सच तो ये है कि जब कुछ कहना हो तो ज़ुबान पर मतलब के शब्द कम और गालियां ज़्यादा होती हैं। क्या इसी भोंडेपन, भद्धेपन को हम नाज़ करने जैसी इंसानी अक्ल का नाम देते हैं? क्या यही हम बुद्धि वाले प्राणियों की बुद्धिमता होती है? नहीं, एकदम नहीं। बल्कि इस तरह हम अपने जाहिलपने का प्रचार प्रसार करते हैं। एक मित्र हैं हमारे। पढ़े लिखे , समझदार , विचारवान । उनकी बड़ी पूूूछ रहती है सामाजिक गतिविधियों में। और हो भी क्यों न, उनका हृदय प्रशांत महासागर की तरह विशाल है जिनमें (निस्संदेह) दया और करुणा जैसे बहुमूल्य माणिक भरे पड़े हैं। मै उनकी इन गुणों की प्रशंसक हूँ। पर, जैसा कि सभी मनुष्यों में पाया जाता है, उनमें भी (एक) अवगुण है.. बमवर्षक की तरह तेज़ गति से उनके मुखारविंद से गालियों की बौछार होती है। जितने रिश्ते एक इंसानी जीवन में होते, उन सबके ऊपर उनकी गालियाँ अपनी पर्यायवाची मित्रगणों के साथ झुंड में पायी जाती हैं उनकी जिह्वा पर। कभी कभी मै सोचती हूँ कि इतना टैलेंटेड इंसान समाज को...

सुनहरी सी बीती एक शाम

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उन दिनों को भुलाना वाक़ई बहुत मुश्किल होता है जब हमारी मुस्कुराहट पे कोई स्याह परछाई नहीं होती थी, जब, हर दिन ऊर्जित और हर शाम बेहद खूबसूरत हुआ करती थीं। धुँधली सांझ जब आकाश को अपने आगोश में लेने लगती थी तो प्रकृति तारों के बल्ब जलाया करती थीं जिससे कोई भूला भटका परिंदा बेखटके घर लौट सके, क्या शामें थीं वो.. थके हुए पथिकों की घर वापसी , ताज़गी भी देती थी और ख़ुशियों भरी सुबह की अग्रिम शुभकामना भी। उन आँखों में इंतज़ार भी होता था जो नज़र गड़ाए किसी अपने के आने की बाट जोहती थी,ऐसी शाम हुआ करती थीं वो। अब वो इंतजार कहाँ? वो दरवाजों पर कौन कान लगाये क़दमो की आहट का इन्तज़ार करे अब? दूर से आती सायकिल की टनटन अब किसके इंतजार की प्यासी रहती है? अब की बात में वो बात नहीं, अब तो सुबह से शाम कब बीत जाती है पता ही नही चलता, अब तो एक फोन क्लिक से दूरियाँ ख़त्म कर दी जाती हैं और शायद इन्तज़ार भी, अब कोई चिट्ठी नहीं लिखी जाती , अब न कोई आस होती है किसी डाकिये के आने की, अब घर में खाना कम बनते हैं ऑनलाइन आर्डर करके ज़्यादा मंगवाए जाते हैं..। अब चाय के धुएँ में शक़्ल नहीं बनती और न बीती यादों की मिठास मिलती है। अ...