सुनहरी सी बीती एक शाम

उन दिनों को भुलाना वाक़ई बहुत मुश्किल होता है जब हमारी मुस्कुराहट पे कोई स्याह परछाई नहीं होती थी,
जब, हर दिन ऊर्जित और हर शाम बेहद खूबसूरत हुआ करती थीं।
धुँधली सांझ जब आकाश को अपने आगोश में लेने लगती थी तो प्रकृति तारों के बल्ब जलाया करती थीं जिससे कोई भूला भटका परिंदा बेखटके घर लौट सके,
क्या शामें थीं वो..
थके हुए पथिकों की घर वापसी ,
ताज़गी भी देती थी और ख़ुशियों भरी सुबह की अग्रिम शुभकामना भी।
उन आँखों में इंतज़ार भी होता था जो नज़र गड़ाए किसी अपने के आने की बाट जोहती थी,ऐसी शाम हुआ करती थीं वो।
अब वो इंतजार कहाँ? वो दरवाजों पर कौन कान लगाये क़दमो की आहट का इन्तज़ार करे अब?
दूर से आती सायकिल की टनटन अब किसके इंतजार की प्यासी रहती है?
अब की बात में वो बात नहीं,
अब तो सुबह से शाम कब बीत जाती है पता ही नही चलता,
अब तो एक फोन क्लिक से दूरियाँ ख़त्म कर दी जाती हैं और शायद इन्तज़ार भी,
अब कोई चिट्ठी नहीं लिखी जाती ,
अब न कोई आस होती है किसी डाकिये के आने की,
अब घर में खाना कम बनते हैं ऑनलाइन आर्डर करके ज़्यादा मंगवाए जाते हैं..।
अब चाय के धुएँ में शक़्ल नहीं बनती और न बीती यादों की मिठास मिलती है।
अब ज़िंदगी जीते कम, काटते ज़्यादा हैं,
अब मिलते कम बिछड़ते ज़्यादा हैं,
अब रातें फ़ोन स्क्रीन्स को तकते हुए बीत जाती है पर नींद नहीं आती।
अब घास पर ओस कौन देखता है?
कौन अब पंछियों को दाने देता है?
अब कौन चाँद की बाट देखता है उनसे बातें करता है?
अब बस इतना होता है कि जीवन के दिन महीने साल अपने आप में अपनों के बिना बीत जाते हैं।
अब इतना ही होता है...

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